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Monday, July 20, 2009

गीतकार बड़ा या साहित्यकार...??

इन्टरनेट की गलियों में भटकते-भटकते इत्तेफकान रवीश कुमार (News anchor, NDTV) के 'कस्बे' में पहुँच गया. उनके कस्बे में एक अजीब से मुद्दे पर चर्चा हो रही थी कि 'गीतकार बड़ा या साहित्यकार'. बस वहीँ ज़हन में कुछ ख़याल आये और लिखने बैठ गया...

हालाँकि मैं ना तो अभी गीतकार हूँ और ना ही साहित्य जगत से कहीं कोई सम्बन्ध है.. फिर भी इस विषय पर अपने विचार रखता हूँ. पर उस से पहले रवीश जी का वो लेख जिसने मुझे लिखने को प्रेरित किया...

गीतकार बड़ा या साहित्यकार
पुरानी बहस होगी। कई बार पुरानी बहसों पर फिर से बहस करनी चाहिए। तमाम विवाद और समीक्षाएं छप चुकने के बाद भी। आलोक पुराणिक ने वाक में लिख भी दिया है प्रसून जोशी का हिंदी की साहित्यिक मुख्यधारा में ज़िक्र नहीं होता है। लेकिन प्रसून जोशी हों या जयदीप साहनी या फिर अनुराग कश्यप। ये लोग नया गीत और गद्य रच रहे हैं। भले ही वो उपन्यास नहीं लिखते कविता नहीं लिखते। मगर जो लिख रहे हैं वो एक बेहतर उपन्यास है। बेहतर कविता है। गीतकारों की यह ऐसी पीढ़ी है जो पहले कविता लिखती है। फिर उसे गीतों में ढाल देती है। यह लोग विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले और साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक या उनमें छपने वाले लोगों से ज़्यादा बड़े तबके से संवाद करते हैं। अब तो साहित्यकारों को भी मात दे रहे हैं। रंग दे बसंती हो या ब्लैक फ्राइडे अनुराग की लिखावट देखिये। ये लोग बाजार के साहित्यकार हैं। बीच बाज़ार में जा कर रच रहे हैं। अच्छा लिख रहे हैं। सुना रहे हैं।

ये वो पीढ़ी है जिसे देख कर लगता है बालीवुड में अब कई गुलज़ार पैदा हो गए हैं। जिनके पास तमाम वर्गों की समझ है। आबो हवा की खुश्बू पकड़ने के लिए शब्द हैं। और ज़िंदगी के आर पार से गुज़रते हुए अनुभव के तमाम लम्हों को बयां कर देने की सलाहियत भी। स्वर्ण युग की अवधारणा कहां से आती है इस पर शोध फिर कभी। लेकिन इनकी वजह से बंबईया फिल्मों में स्वर्ण युग आ गया है। चक दे का गाना जयदीप साहनी ने लिखा है। मौला मेरे ले ले मेरी जान। इस गीत में जयदीप साहनी ने रंग और त्योहार के बहाने राजनीतिक टिप्पणी की है। खूबसूरती के साथ और खुल कर। इस गीत की चंद पंक्तियों पर ग़ौर कीजिए-

तीजा तेरा रंग था मैं तो
जीया तेरे ढंग से मैं तो
तू ही था मौला तू ही आन
मौला मेरे ले ले मेरी जान

तारे ज़मीन के सभी गीत किसी कवि के लिखे लगते हैं। इसीलिए प्रसून जोशी कवि लगते हैं। बल्कि वो हैं। उनके बारे में सब जानते हैं। सब लिख चुके हैं। इसलिए मैं कम लिखूंगा। आप ज़रा ग़ौर कीजिए

(1)
तू धूप है झम से बिखर
तू है नदी ओ बेख़बर
बह चल कहीं उड़ चल कहीं
दिल खुश जहां
तेरी तो मंज़िल है वहीं
(२)
मां मैं कभी बतलाता नहीं
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां
यू तो मैं,दिखलाता नहीं
तेरी परवाह करता हूं मैं मां
तुझे सब है पता, है न मां
तुझे सब है पता मेरी मां

सईद क़ादरी का लिखा लाइफ इन ए मेट्रो का गाना-
इन दिनों दिल मेरा
मुझसे है कह रहा
तू ख्वाब सजा
तू जी ले ज़रा है
तुझे भी इजाज़त कर ले
तू भी मोहब्बत

बेरंग सी है बड़ी ज़िंदगी
कुछ रंग तो भरूं
मैं अपनी तन्हाई के वास्ते
अब कुछ तो करूं

बंटी बबली के इस गाने के बोल पर ग़ौर कीजिए-
देखना मेरे सर से आसमां उड़ गया है
देखना आसमां के सिरे खुल गए हैं ज़मीं से
देखना क्या हुआ है
यह ज़मी बह रही है देखना पानियों में ज़मी घुल रही है कहीं से।

ये सब चंद गीत हैं जब बजते हैं तो लगता है इन्हें लिखने वाले ने मंगलेश डबराल, केदार नाथ सिंह,अरुण कमल को पढ़ा होगा। इन्हीं के बीच का होगा। जो अनुभूतियों को बड़े स्तर पर रच रहे हैं। जिनके बोल गुनगुनाने के लिए ही नहीं बल्कि नया मानस बनाने के लिए भी हैं। बल्कि बना भी रहे हैं। आलोक पुराणिक ठीक कहते हैं हिंदी साहित्य में इसकी चर्चा क्यों नहीं। क्यों नहीं प्रसून जोशी और जयदीप साहनी पर नामवर सिंह जैसे आलोचक लिखते हैं? आखिर इनकी रचनाओं में कविता के प्रतिमान क्यों नहीं है? क्या साहित्यकार बाज़ार में नहीं है? क्या उसने बाज़ार की मदद से अपनी रचनाओं का प्रसार नहीं किया? सवाल गीत को कविता से अलग करने का नहीं है। सवाल है कि हम इन्हें क्या मानते हैं? अगर थोड़ा भी रचनाकार मानते हैं तो जयदीप साहनी को युवा कवि का पुरस्कार क्यों नहीं मिलता? प्रसून जोशी को साहित्य अकादमी क्यों नहीं दिया जा सकता?

यह हिंदी समाज का अपना मसला है। हर समाज में खाप और उनकी पंचायत होती है। हिंदी की भी है। लेकिन इस खाप से बाहर बालीवुड के नए गीतकार और पटकथा लेखक इस पतनशील वक्त में प्रगतिशील रचना कर रहे हैं। कम से कम इसे स्वीकार करने का साहस तो दिखाना ही चाहिए।
source : http://naisadak.blogspot.com/2008/01/blog-post_09.html


हाँ तो मैं यह कह रहा था कि यहाँ सवाल किसी के बड़े या छोटे होने का नहीं है, ना ही सवाल ये है कि गीतकारों को साहित्यकारों कि श्रेणी में रखा जाये या नहीं..क्योंकि हिंदी सिनेमा में बहुतेरे गीतकार हुए हैं जो मूल रूप से साहित्यकारों कि श्रेणी में ही आते हैं. और कितने ही साहित्यकार ऐसे रह गए जो हिंदी अकादमी कि चारदीवारी के बाहर आने को तरसते रहे.

प्रसून, जयदीप, अनुराग, स्वानंद सभी ने अपने काम का लोहा मनवाया है. इनके गीतों , कहानियो और निर्देशन में सार्थकता दिखाई देती है. चलो सार्थकता को एक बार किनारे भी रख दो , मेरा तो ये मानना है कि चालू से चालू गीत लिखने के लिए भी कलम तो उठन्नी पड़ती है, दिमाग़ तो चलना पड़ता है.. यक़ीनन हिंदी सिनेमा के ये नए सितारें हर पुरुस्कार, हर सम्मान के अधिकारी हैं.. लेकिन दूसरी ओर गुमनामी के अंधेरों में भटक रहे कितने ही ऐसे रचनाकार हैं जो 'साहित्य जगत' में तो सम्मान पा लेते हैं लेकिन आम आदमी उनका नाम तक नहीं जानता...!!

आज किसी बच्चे से एक कवि का नाम पूछ के देखो... नाम बताना तो दूर वो ये पूछेगा कि 'कवि' कौन होता है? कैसा होता है?

इस युवा पीढी में कौन है जो हरिओम पवार जी, ओम प्रकाश आदित्य जी, कुंवर बेचैन साहब जैसे साहित्य के स्तंभों या उनकी रचनाओं के बारें में जानता है? डॉ कुमार विश्वाश या देवल आशीष के प्रेम गीतों को गुनगुनाता है?


गाज़ियाबाद के अट्टहास कवि सम्मलेन में एक बार देवल भाई को सुना था, और महसूस किया था कि बॉलीवुड में हजारों प्रेम गीत लिखे गए हैं पर देवल भाई कि ऐसी रचना से हिंदी सिनेमा हमेशा महरूम रहा है..

चलो खैर वापस अपने मुद्दे पे आते हैं, गीतकार बड़ा या साहित्यकार... मेरी नज़र में दोनों महान हैं.. जो अच्छा लिखे, सच्चा लिखे.. कभी समाज को आईना दिखाए तो कभी शब्दों कि जादूगरी से मन बहलाए.. दोनों कि जय हो...!!

4 comments:

  1. दोनों ही महान हैं अपनी अपनी दुनिया में.......... ये बहस बेमानी है की कौन बड़ा है ...........

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  2. शुभम् जी,

    आप की पोस्टें देखा। बहुत कम लिखते है आप।

    2010 खत्म होने आया और अब तक सिर्फ पांच पोस्टें :)

    गीतकार बड़ा या संगीतकार वाले मसले पर बढ़िया पोस्ट।

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  3. @Satish Ji

    Jee sahi farmaya, iss saal blog pe kum aana hua hai, par ab koshish rahegi ki regularly likha karun.. baaqi jab bhi gaadi rukegi, dhakka lagaane ke liye aap jaise guniyon ka saaht hai..!! Bahut aabhaar!! :)

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