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Thursday, October 1, 2009

बस गाँधी-नेहरु महान.., और बाक़ी सबके बलिदान....??

अभी डेढ़ महीने पहले ही हमने अपना 62वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाया... उसका दर्द सीने से गया भी नहीं था कि लो गाँधी जयंती आ गयी....!!

आप कहेंगे स्वतंत्रता दिवस का दर्द..?? जी..., ये वो दर्द है जो पूरा मुल्क़ पिछले 60-62 सालों से झेल रहा है. दर्द इस बात का कि हर साल लाल किले की प्राचीर से प्रसारित होने वाले भाषण में बस गिने चुने 2-3 नाम ही लिए गए हैं, जैसे कि आज़ादी दिलाने में सिर्फ़ इनका ही योगदान था, बाक़ी सबके बलिदान तो कुछ थे ही नहीं..!! मुझे इन 2-3 नामों की माला जपे जाने से भी कोई नाराज़गी नहीं, जपते रहो, लेकिन पीड़ा होती है तो और बलिदानियों की अनदेखी होने से...!!

अपने कुनबे के गुणगान में इतने मग्न हो जाओगे कि भगत सिंह जी का नाम नहीं लोगे, उधम सिंह जी को भूल जाओगे, चन्द्र शेखर आजाद जी, सुभाष चन्द्र बोस जी, बिस्मिल जी, अश्फ़ाक़ जी, शास्त्री जी, पटेल जी जैसे लौह पुरुषों की कुर्बानियों की अनदेखी करते रहोगे...!!



2 अक्टूबर को गाँधी जयंती मनाओगे, पर 'जय जवान, जय किसान' का नारा देने वाले नन्हे लाल बहादुर शास्त्री जी का कहीं नाम तक नहीं लोगे...!!

14 नवम्बर को बाल दिवस मनाओगे पर उन 22-23 साल के बच्चों को भूल जाओगे जो हंसते-हंसते फांसी के फ़न्दो पे झूल गए..!!

30 जनवरी, जब महात्मा गांधी का वध हुआ, उस दिन को शहीद दिवस के रूप में मनाओगे, लेकिन गुलाम हिंदुस्तान की तारीख़ में हुए सबसे बड़े शहादत के दिन (13 अप्रैल) को भूल जाओगे...!!


हिंदी साहित्य जगत के बहुत ही वरिष्ट कवि आदरणीय सोम जी की एक कविता जो इसी घृणा और इसी दर्द को कुरेदती है, आप सबकी नज़र -

आज़ादी के परवानों की अमर कहानी भूल गए,
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए..

भगत सिंह, आजाद, क्रांति की बेला के सिरमौर रहे,
पर उनकी फेहरिस्तों में सर नाम फ़रिश्ते और रहे..
अश्फ़ाक़ुल्लाह, उधम सिंह के नाम ज़हन से उतर गए,
वो फ़ांसी पर चढ़ी देश की भरी जवानी भूल गए..
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए..

जिसने खोल दिया दरवाज़ा, इंक़लाब की राहों का,
जिसको ज़ोर देखना था, केवल क़ातिल की बाँहों का..
जिसके दिल में रही तमन्ना, केवल शीश चढ़ाने की,
बिस्मिल की वो आग उगलने वाली बाणी भूल गए..
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए..

ग़र्म खून के बदले जिसके आज़ादी के वादे थे,
हर सच्चे वादे के पीछे ज़िंदा नेक इरादे थे..
लो एहसान-फ़रामोशी उनकी कितनी बेजोड़ रही,
नक़ली प्यादे याद रहे, असली सेनानी भूल गए..
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए..

जिसने हिला दिया बरगद को, झुका दिया था ताड़ों को,
एक डोर में बाँध दिया, जिसने सारे रजवाड़ों को..
दूरदृष्टि कैसी थी उसकी, वतनपरस्ती कैसी थी,
उस लोहे के इंसां का, फ़ौलादी पानी भूल गए..
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए..

जिसके हल आयुध के सपने भारत की तैयारी थे,
जिसके मास 18, सत्रह सालों से भी भारी थे..
जिसने खोले थे अशोक के बाद मोर्चे सीमा पर,
उस नन्हे बलिदानी की, हिम्मत लासानी भूल गए..
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए...

आज़ादी के परवानों की अमर कहानी भूल गए,
अपना कुनबा याद रहा, सबकी कुर्बानी भूल गए..!!